कहाँ से चले थे कहाँ आ पहुंचे
जाना था किधर यहाँ कैसे आ पहुंचे
यह रास्ते कब बदल गए कहीं हमने तो नहीं राह बदल ली
बस यही सोच के गम हूँ में भटक गई की राह उलझ गई
जैसे चील की नज़र हर वक्त मॉस पे टिकती है क्यूँ हर नज़र ऐसे चुभती है क्या पता इस परदे के पीछे ध्युआं भी बाकी ना हो राख भी आंसुओं से धुल गई हो ...............